राष्ट्रभाषाः संस्कृति की पहचान
भारतीय
सभ्यता
में
विभिन्नताओं
के
बावजूद
हमारा
आचार-विचार,
व्यवहार
सभी
एक
मूल
धारा
से
जुड़ा
है
और
उसी
का
नाम
है
संस्कृति,
जिसकी
संहिता
है
संस्कृत
भाषा
में।
देश
की
तमाम
भाषाएँ
संस्कृत
भाषा
कि
पुत्रियाँ
मानी
जाती
हैं,
जिनमें
पूरे
देश
को
एकता
के
सूत्र
में
पिरोये
रखने
का
महान
कार्य
करने
वाली
ज्येष्ठ
पुत्री
है
हमारी
राष्ट्रभाषा
ʹहिन्दीʹ। देश
की
अन्य
भाषाएँ
उसकी
सहयोगी
बहने
हैं,
जो
एकता
में
अनेकता
व अनेकता
में
एकता
का
आदर्श
प्रस्तुत
करती
हैं।
प्राचीन
काल
में
संस्कृत
भाषा
के
विशाल
साहित्य
के
माध्यम
से
जीवन-निर्माण
की
नींव
रखी
गयी
थी।
उसी
से
प्रेरित
और
उसी
का
युग-अनुरूप
सुविकसित
मधुर
फल
है
राष्ट्रभाषा
हिन्दी
का
साहित्य।
आज
भी
इस
विशाल
साहित्य
के
माध्यम
से
नीतिमत्ता
के
निर्देश,
ईश्वर
के
आदेश,
ऋषियों
के
आदेश,
ऋषियों
के
उपदेश
और
महापुरुषों
के
संदेश
हमारे
जीवन
की
बगिया
को
सुविकसित
करते
हुए
महकता
उपवन
बना
रहे
हैं।
अंग्रेजी
शासन
से
पूर्व
हमारे
देश
में
सभी
कार्य
हिन्दी
में
किये
जाते
थे। मैकाले की शिक्षा-पद्धति विद्यालयों में आयी और विद्यार्थियों को अंग्रेजी में पढ़ाया जाने लगा, उसी में भावों को अभिव्यक्त करने के लिए मजबूर किया जाने लगा। हिन्दी को केवल एक भाषा विषय की जंजीरों में बाँध दिया गया, जिसके दुष्परिणाम सामने हैं।
अंग्रेजी भाषा के दुष्परिणाम
गांधी
जी
कहते
थेः
"विदेशी
भाषा
के
माध्यम
ने
बच्चों
के
दिमाग
को
शिथिल
कर
दिया
है।
उनके
स्नायुओं
पर
अनावश्यक
जोर
डाला
है,
उन्हें
रट्टू
और
नकलची
बना
दिया
है
तथा
मौलिक
कार्यों
और
विचारों
के
लिए
सर्वथा
अयोग्य
बना
दिया
है।
इसकी
वजह
से
वे
अपनी
शिक्षा
का
सार
अपने
परिवार
के
लोगों
तथा
आम
जनता
तक
पहुँचाने
में
असमर्थ
हो
गये
हैं।
यह
वर्तमान
शिक्षा
प्रणाली
का
सबसे
बड़ा
करूण
पहलू
है।
विदेशी
माध्यम
ने
हमारी
भाषाओँ
की
प्रगति
और
विकास
को
रोक
दिया
है।
कोई
भी
देश
नकलचियों
की
जाति
पैदा
करके
राष्ट्र
नहीं
बन
सकता।"
लौहपुरुष
सरदार
पटेल
कहा
कहते
थेः "विदेशी भाषा के माध्यम द्वारा शिक्षा देने के तरीके से हमारे युवकों की बुद्धि के विकास में बड़ी कठिनाई पैदा होती है। उनका बहुत-सा समय उस भाषा को सीखने में ही चला जाता है और इतने समय के बावजूद यह कहना कठिन होता है कि उन्हें शब्दों का ठीक-ठाक अर्थ कितना आ गया।"
भ्रांतियों
से
सत्यता
की
ओर.....
मैकाले
की
शिक्षा
पद्धति
के
गुलाम
आज
के
व्यक्तियों
द्वारा
हमारी
भोली-भाली
युवा
पीढ़ी
को
भ्रमित
करने
के
लिए
अंग्रेजी
के
पक्ष
में
कई
तर्क
दिये
जाते
हैं,
जिनका
सच्चाई
से
कोई
संबंध
नहीं
होता।
जैसे
– वे
कहते
हैं
कि
ʹअंग्रेजी
बहुत
समृद्ध
भाषा
है।ʹ
परंतु
किसी
भी
भाषा
की
समृद्धि
इस
बात
से
तय
होती
है
कि
उसमें
कितने
मूल
शब्द
हैं।
अंग्रेजी
में
सिर्फ
12000 मूल
शब्द
हैं।
बाकी
के
सारे
शब्द
चोरी
के
हैं
अर्थात्
लैटिन,
फ्रैंच,
ग्रीक
भाषाओं
के
हैं।
इस
भाषा
की
गरीबी
तो
इस
उदाहरण
से
स्पष्ट
हो
जाती
है
कि
अंग्रेजी
में
चाचा,
मामा,
फूफा,
ताऊ
सबको
ʹअंकलʹ
और
चाची,
मामी,
बुआ,
ताई
सबको
ʹआँटीʹ
कहते
हैं।
जबकि
हिन्दी
में
70000 मूल
शब्द
हैं।
इस
प्रकार
भाषा
के
क्षेत्र
में
अंग्रेजी
कंगाल
है।
मैकाले की शिक्षा पद्धति के गुलाम कहते हैं कि ʹअंग्रेजी नहीं होगी तो विज्ञान व तकनीक की पढ़ाई नहीं हो सकतीʹ परंतु जापान एवं फ्रांस में विज्ञान व तकनीक की पढ़ाई बिना अंग्रेजी के बड़ी उच्चतर रीति से पढ़ायी जाती है। पूरे जापान में इंजीनियरिंग तथा चिकित्सा के जितने भी महाविद्यालय व विश्वविद्यालय हैं, सबमें जापानी भाषा में पढ़ाई होती है। जापान के लोग विदेश भी जाते हैं तो आपस में जापानी में ही बात करते हैं। जापान ने विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अपनी भाषा में ही अध्ययन करके उन्नति की है, जिसका लोहा पूरा विश्व मानता है। इसी तरह फ्रांस में बचपन से लेकर उच्च शिक्षा तक पूरी शिक्षा फ्रेंच भाषा में दी जाती है।
इसके
विपरीत
हमारे
देश
में
अंग्रेजी
भाषा
के
प्रशिक्षण
को
राष्ट्रीय
एवं
राजकीय
कोषों
से
आर्थिक
सहायता
द्वारा
प्रोत्साहन
दिया
जा
रहा
है।
संसद,
न्यायपालिका
आदि
महत्त्वपूर्ण
प्रणालियों
में
भी
अंग्रेजी
को
प्रधानता
मिल
रही
है।
इससे
केवल
उच्च
वर्ग
ही
इनका
लाभ
ले
पा
रहा
है।
ʹअंग्रेजी
युवा
पीढ़ी
की
माँग
हैʹ
- ऐसा
बहाना
बनाकर
विज्ञापनों
के
माध्यम
से
भाषा
की
तोड़-मरोड़
करके
अपनी
ही
राष्ट्रभाषा
का
घोर
तिरस्कार
किया
जा
रहा
है।
उसका
सुंदर,
विशुद्ध
स्वरूप
विकृत
कर
उसमें
अंग्रेजी
के
शब्दों
की
मिलावट
करके
टीवी
धारावाहिकों,
चलचित्रों
आदि
के
माध्यम
से
सबको
सम्मोहित
किया
जा
रहा
है।
अंग्रेजी
का
दुष्परिणाम
इतना
बढ़
गया
है
कि
बच्चों
के
लिए
अपनी
माँ
को
ʹमाता
श्रीʹ
कहना
तो
दूर
ʹमाँʹ
कहना
भी
दूभर
होता
जा
रहा
है।
जिस
भाषा
में
वात्सल्यमयी
माँ
को
ʹमम्मीʹ
(मसाला
लगाकर
रखी
हुई
लाश)
और
जीवित
पिता
को
ʹडैडीʹ
(डेड
यानी
मुर्दा)
कहना
सिखाया
जाता
है,
उसी
भाषा
को
बढ़ावा
देने
के
लिए
हमारे
संस्कार
प्रधान
देश
की
जनता
के
खून-पसीने
की
कमाई
को
खर्च
किया
जाना
कहाँ
तक
उचित
है
?
बुराई
का
तुरन्त
इलाज
होना
चाहिए
गांधी जी कहते थेः "अंग्रेजी सीखने के लिए हमारा जो विचारहीन मोह है, उससे खुद मुक्त होकर और समाज को मुक्त करके हम भारतीय जनता की एक बड़ी-से-बड़ी सेवा कर सकते हैं। अगर
मेरे
हाथों
में
तानाशाही
सत्ता
हो
तो
मैं
आज
से
ही
विदेशी
माध्यम
के
जरिये
दी
जाने
वाली
शिक्षा
बंद
कर
दूँ
और
सारे
शिक्षकों
व प्राध्यापकों
से
यह
माध्यम
तुरंत
बदलवा
दूँ
या
उन्हें
बरखास्त
करा
दूँ।
मैं
पाठ्यपुस्तकों
की
तैयारी
का
इंतजार
नहीं
करूँगा।
वे
तो
माध्यम
के
परिवर्तन
के
पीछे-पीछे
अपने-आप
चली
आयेंगी।
यह
एक
ऐसी
बुराई
है,
जिसका
तुरंत
इलाज
होना
चाहिए।"
मातृभाषा हो शिक्षा का माध्यम
बच्चा
जिस
परिवेश
में
पलता
है,
जिस
भाषा
को
सुनता
है,
जिसमें
बोलना
सीखता
है
उसके
उसका
घनिष्ठ
संबंध
व अपनत्व
हो
जाता
है।
और
यदि
वही
भाषा
उसकी
शिक्षा
का
माध्यम
बनती
है
तो
वह
विद्यालय
में
आत्मीयता
का
अनुभव
करने
लगता
है।
उसे
किसी
भी
विषय
को
समझने
के
लिए
अधिक
मेहनत
नहीं
करनी
पड़ती।
दूसरी
भाषा
को
सीखने-समझने
में
लगने
वाला
समय
उसका
बच
जाता
है।
इस
विषय़
में
गांधी
जी
कहते
हैं-
"राष्ट्रीयता
टिकाये
रखने
के
लिए
किसी
भी
देश
के
बच्चों
को
नीची
या
ऊँची
– सारी
शिक्षा
उनकी
मातृभाषा
के
जरिये
ही
मिलनी
चाहिए।
यह
स्वयं
सिद्ध
बात
है
कि
जब
तक
किसी
देश
के
नौजवान
ऐसी
भाषा
में
शिक्षा
पाकर
उसे
पचा
न लें
जिसे
प्रजा
समझ
सके,
तब
तक
वे
अपने
देश
की
जनता
के
साथ
न तो
जीता-जागता
संबंध
पैदा
कर
सकते
हैं
और
न उसे
कायम
रख
सकते
हैं।
हमारी
पहली
और
बड़ी-से-बड़ी
समाजसेवा
यह
होगी
की
हम
अपनी
प्रांतीय
भाषाओं
का
उपयोग
शुरु
करें
और
हिन्दी
को
राष्ट्रभाषा
के
रूप
में
उसका
स्वाभाविक
स्थान
दें।
प्रांतीय
कामकाज
प्रांतीय
भाषाओं
में
करें
और
राष्टीय
कामकाज
हिन्दी
में
करें।
जब
तक
हमारे
विद्यालय
और
महाविद्यालय
प्रांतीय
भाषाओं
के
माध्यम
से
शिक्षण
देना
शुरु
नहीं
करते,
तब
तक
हमें
इस
दिशा
में
लगातार
कोशिश
करनी
चाहिए।"
तो
आइये,
हम
सब
भी
गांधी
जी
की
चाह
में
अपना
सहयोग
प्रदान
करें।
हे
देशप्रेमियो
! अपनी
मातृभाषा
एवं
राष्ट्रभाषा
का
विशुद्ध
रूप
से
प्रयोग
करें
और
करने
के
लिए
दूसरों
को
प्रोत्साहित
करें।
हे
आज
के
स्वतंत्रता-संग्रामियो
! अब
देश
को
अंग्रेजी
की
मानसिक
गुलामी
से
भी
मुक्त
कीजिये।
क्रान्तिवीरो
! पूरे
देश
में
अपनी
इन
भाषाओं
में
ही
शिक्षा
और
कामकाज
की
माँग
बुलन्द
कीजिये।
आपके
व्यक्तिगत
एवं
संगठित
सुप्रयास
शीघ्र
ही
रंग
लायेंगे
और
सिद्ध
कर
देंगे
कि
हमें
अपने
देश
से
प्रेम
है।
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